100 BEST NATURE SHAYARI प्रकृति पर शायरी, नेचर शायरी SHAYARI ON NATURE
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गंवा मत खूबसूरत पल उठ जाग भोर हुई…
देख सुनहरी धूप खिली सुन पक्षियों के मधुर गीत…
प्रकृति का मोहक संगीत…
नदियाँ भी अपनी धुन में गुनगुनाती मगन हो बह रही…
सुबह के ये सारे खूबसूरत पल हो तू भी इनमें शामिल…
शाख से पत्ते गिरे हो, मैं ऐसे भटकना नहीं चाहती हूँ…
मैं अपनी भी जड़ें रखना चाहती हूँ…
हाँ … मैं जमीन से ही सदा जुड़े रहना चाहती हूँ…
SHAYARI ON NATURE
रुको मत आगे बढ़ते रहो जरुर पूरी होगी तुम्हारी चाह…
तुम कर्म करो कठोर से कठोर मेहनत करो…
बस यही है प्रकृति की सलाह…
कभी भाग्य के करिश्में की लालसा में नहीं रुकना…
नहीं तो कभी मंजिल दिखेगी ना दिखेगी राह…
भौंरों ने दौड़ लगाई है…
मैंने पूछ लिया क्या ढूंढने निकले हो…
वो फूल जो इंसानों ने नहीं तोड़े हैं…!
पंछियों ने उड़ान भरी है…
मैंने पूछ लिया क्या ढूंढने निकले हो…
वो पेड़ जो इंसानों ने नहीं काटे हैं…!
झरनों ने बहना शुरु कर दिया है…
मैंने पूछ लिया क्या ढूंढने निकले हो…
वो नदियाँ जो इंसानों की गंदगी से बची है…!
प्रकृति ने भागना शुरू कर दिया है…
मैंने पूछ लिया क्या ढूंढने निकले हो…
वो दुनिया जहाँ इंसान नहीं बसते हैं…!
वो मौसम जैसे थी खूबसूरत, सुहानी…
दिल को सुकून देने वाली थी…
पर मैं प्रकृति के बदलने से अनजान था…
Nature Shayari
इंतजार है एक तेरा… कश्ती पर सवार हो…
समंदर की मस्ती भरी लहरों पर चलें…
सुनो अब चलें उस नीले गगन के तले…
प्रकृति पर शायरी
सुनो… बारिश की बूंदें चुपके से कह रही है…
कितना भी ऊँचा उठ जाओ तुम…
पर आना तो तुम्हें जमीन पर ही है…
प्रकृति… भूख लगने पर औरों को…
खाना खिलाना ये प्रकृति है…
इंसान… भूख लगने पर दूसरों के…
खाने को खा जाना ये विकृति है…
तुम बचाते हो दो पेड़ों को तो अपना भविष्य बचाओगे…
वहम छोड़ झूठे जीवन का सच में कुछ कर जाओगे…
NATURE SHAYARI IN HINDI
नहीं कैद रहना है मुझे इन चार दिवारों में…
मुझे तो जीना है इस प्रकृति की हवाओं में…
चलो जंगल में पेड़ काटते हैं…
जानवरों को आपस में बाँटतें हैं…
कुछ तुम रखना कुछ हम घर ले जाते हैं…
इनमें इन्सान और ज्यादा जंगली को छांटते हैं…
फिजाओं से आ रही है महक ये मिलन की…
तपन धरती की मिटाने देखो एक बादल आया है…
नेचर शायरी
नदी के किनारे अनगिनत सपने सजाये मैं…
ऐ चांदनी रात आओ ना तुम पर प्यार लूटाऊँ मैं…
कुदरत साथ ना दे तो दुनिया साथ नहीं देती…
मेरी अपनी ही परछाई धूप आने के बाद मिली…
संभल जाओ ऐ दुनिया वालों…
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नहीं…
ईश्वर करता आगाह हर पल तुम्हें…
प्रकृति पर ना करो घोर अत्यचार…
लगा बारूद पहाड़, पर्वत उड़ाये तुमने…
स्थल रमणीय सघन रहा नहीं अब…
खोद रहा खुद ही इंसान कब्र अपनी…
जैसे जीवन की उसे अब परवाह नहीं…
Nature Shayari
नदी मर गई… पर्वत मर गए…
मरे हवा, पेड़ और मिट्टी भी…
हुआ परेशान फिर जो इंसान…
गुम हो गई सांस और जिन्दगी भी…
प्रकृति की खामोशी में भी…
मीठी चहचहाहट सुनाई पड़ती है…
जो मेरे भीतर की गहराई तक जाकर…
मुझे खामोश रहना सिखाती है…
और धैर्य पर भरोसा रखना समझाती है…
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प्रकृति से सीखिए जीने का सलीका…
धूप बरसात में खिले रहने का तरीका…
फूलों को देखने से मन हर्षित होता है…
इनकी महक व सुंदरता में खुद को खोता है…
फूलों को देखने से मन अचंभित होता है…
कितने रंग, रूप, आकार-प्रकार व खुशबू में…
फूल उपलब्ध होता है…
प्रकृति की ये अनुपम, अनूठी, अमूल्य कृति…
देखकर ईश्वर की सत्ता में…
मन में आदर व प्रेम उत्पन्न होता है…
प्रकृति भी सिखाती है जीवन जीने की कला…
सुदृढ़ होकर भी वृक्ष देते हैं लताओं को पनाह…
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NATURE SHAYARI
तुम पागल चिड़िया… मैं दीवाना भंवरा हूँ…
तुम डाल-डाल… मैं पत्ता-पत्ता हूँ…
तुम कूकती कोयल सी… मैं गुंजन करता भंवरा हूँ…
तुम प्यासी धरती हो… मैं प्रेमी बादल हूँ…
तुम प्यार बरसाने वाली राधा हो… तो मैं गोकुल का कान्हा हूँ…
तुम प्रेम की नदियाँ हो… तो मैं अथाह प्रेम का सागर हूँ…
Nature Shayari
पड़ी जो नजर मेरी अचानक… उस खूबसूरत तस्वीर पर…
उभरा जहन में मेरे… बस यही एक ख्याल कि…
प्रकृति को भी है ये खबर, हर मर्ज कि दवा है संगीत…
इसलिए सजा रखी है उसने सुर-साज की ये महफिल…
बजती रहे ये मधुर धुन सदा, न लगे विराम इस सौंदर्य पर…
करना है हम सभी को मिलकर इसके लिए प्रयास…
वो बारिशों की जमीन के लिए बेपनाह मोहब्बत…
जिसकी खातिर वो अपने आशियाने…
आसमानों को भी छोड़ देती है…!
वो नदियों की समंदरों के लिए बेपनाह मोहब्बत…
जिसकी खातिर वो अपने आशियाने…
पर्वतों को भी छोड़ देती है…!
Nature Shayari
माथपट्टी सफेद मोगरे की… जूड़े में सजे हैं महके गुलाब…
नथनी दमके हीरे सी… गालों पर सूर्य की लाली का आब…
पीले उजले वस्त्र हैं… उसके धानी रंग की उसकी चुनरी…
नूपुर बढ़ा रहे पैर की शोभा… हाथों में कुंदन की मुंदरी…
रंग है पीला सोने जैसा… गंध है उसकी केसरिया…
वाणी मीठे झरने जैसी… गाये जैसे कोयलिया…
श्रृंगार अनोखे किये प्रकृति ने किंतु किस्मत ये क्या…
लिखवा ली लड़कियों की तरह आती है…
कुदरत के हिस्से में भी इनकी रातें काली…
NATURE SHAYARI
भोर की सुनहरी किरणों संग…
प्रकृति की सुन्दरता भव्य निराली है…
देखो मिलकर पेड़ों से किस तरह…
मस्ती में इठलाती डाली डाली है…
Nature Shayari
मातृत्व भरा व्यवहार और है करुणामयी जिसकी दृष्टि…
ध्यान रखिए उस प्रकृति का खुशहाल रखिए अपनी सृष्टि…
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प्रकृति पर शायरी
पुस्तक और प्रकृति से बेहतर…
मित्र दुनिया में और कोई नहीं…
Nature Shayari
सभी फूलों का एक साथ खिल जाना…
प्रकृति सिखाती है समझौते में सुकून पाना…
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NATURE SHAYARI IN HINDI
आज मैंने प्रकृति के रंग में खुद को रंग लिया…
और मैं भी अब रंगीन और अनमोल हो गई…
प्रकृति पर शायरी
प्रकृति पर छाई निराली वसंत बहार…
देखो कैसी रूठ बैठी है हमारी भी बहार…!
हर ओर उत्सव नव चेतना उल्हास का…
हमारी जान कैसे बनी है पात्र हास का…!
भोर होते सूर्य की लालिमा से गगन लाल…
इधर टेसू भी रंगत लिए रुखसार लाल…!
निसर्ग अपने पूरे यौवन पर आई है…
दिलरुबा न जाने कौन से संताप में आई है…!
ये सृष्टि की अद्भुत, अनोखी, अनुपम छटा मात्र है…
और हमारी सनम के नखरों की अदा मात्र है…!
अब मासूम क्या करे प्रकृति का उत्सव मनाए…
या बेचारा अपनी प्रियसी को मनाए…!
नेचर शायरी
ये धुंध नहीं… प्रकृति की अद्भूत विलक्षण माया है…
मैंने तो सदा ही इसमें मनचाही आकृतियों को पाया है…
Nature Shayari
प्रकृति से सीखिए…
अपने हौसलों को बुलंद रखना…!
धरती से सीखें…
उजड़े हुए जीवन में हरियाली लाना…!
आकाश से लें शिक्षा…
कोई कैसा भी बर्ताव करे…
उसे आश्रय देकर करना उसकी रक्षा…!
पानी से बड़ा शिक्षक कोई नहीं…
हमेशा चलना सीखो चाहे जहाँ हो मंजिल…!
वायु से सीख ले तु…
शत्रु कितना भी ताकतवर क्यों न हो…
हमेशा निडर रहकर काम कर तु…!
पेड़-पौधों से भी सीखो…
सब पर खुशियों कि बरसात करना…
और अपनी छाँव से आधार देना…!
फूलों से भी सीखें…
जिन्दगी कितनी भी छोटी हो…
उसे हमेशा रंगो से नया रूप देना सीखो…!
प्रकृति से यह शिक्षा लेकर…
अब उठो और अपने जीवन को बनाओ आगे बढ़ो…!
SHAYARI ON NATURE
काल कह रहा है तुमसे प्रकृति पर मत करो प्रहार…
जब यह बिगड़ जायेगी मचेगा जग में हाहाकार…
Nature Shayari
संभव है तुम कोरी कल्पना हो…
पर शायद कभी प्रिय! तुमसे मिलना हो…!
संभव है शायद कहीं होगे तुम…
शायद किसी कली को कहीं खिलना हो…!
संभव है प्रकृति प्रतीक्षारत हो…
प्रेम प्रवाह में शायद उसे भी बहना हो…
संभव है पुरूष भी व्याकुल हो…
शायद अब अपूर्ण न उसको रहना हो…!
संभव है कहीं प्रेम का अंकुर हो…
करके पौध उसे अब रोपित करना हो…
संभव है प्रीत से खिलता जाए…
शायद तुम सा ही प्रकृति उसे ढलना हो…!
संभव है तुम कोरी कल्पना हो…
पर शायद कभी प्रिय! तुमसे मिलना हो…!
खेतों में दूर तलक फैली कोमल हरियाली…
फैला हुआ ये नीला चादर करता इनकी रखवाली…
अदभुत, अद्वैत और लगती है ये हृदय को प्यारी…
सदा हरी-भरी रहे ये प्यारी प्रकृति हमारी…
Nature Shayari
बदलाव का दौर पुरुष स्वयं को ढाल लेता है…
भावनाओं को नियंत्रित करके…
सब कुछ सहकर भी रहता अटल सा किसी…
पर्वत की तरह, स्त्री स्वयं को ढाल लेती है…
स्वयं को स्वयं तक सीमित करके…
सब कुछ आपने भीतर सहेज कर भी शांत सी…
किसी समुद्र की तरह, मैंने अक्सर देखा है…
समुद्र की लहरों को पर्वत से टकराते हुए…
पेड़ को काटकर लकड़हारा खुद हैरान है…
पहले था छांव में अब धूप से परेशान है…
Nature Shayari
प्रकृति चक्र का संचालन जब-जब भी टूटा है…
नभ अथवा वसुधा से सर्वनाश बनकर फूटा है…
विनाश को प्राप्त हुई हैं कई सभ्यताएँ और संपदा…
फिर हम क्यों उत्सुक हैं आगे बढ़ाने को ये परंपरा…
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अद्भूत कलाकार हो तुम प्रकृति भला कैसे तुम ये कर पाती हो…
नन्ही सी तितली के पंखों पर इतनी सुंदर रंग सजाती हो…
Nature Shayari
सुबह की किरण सी तुम… निहारता ही रहूँ मैं…
ओस की भीनी महक सी तुम… सूँघता ही रहूँ मैं…
पल-पल हर पल… रंग बदलती तुम…
देखता ही रहूँ मैं… मेरे ख्यालों की हसीन परी सी तुम…
खोया ही रहूँ मैं… प्रकृति के असीम स्नेह तुम…
अहसास करता ही रहूँ मैं… तुम ही मेरा गीत…
तुम ही मेरी गजल… बस तुम्हे ही गुनगुनाता रहूँ मैं…
भोली सी तुम… प्यारी सी तुम… भली सी तुम…
बस तुमसे ही सदा प्यार करता रहूँ मैं…
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चलो आज एक नई प्रार्थना करते हैं…
धैर्य, त्याग, अनुशासन और समर्पण से…
अपने संस्कारों को सीचते हैं…
लोभ, मोह, स्वार्थ और द्वेष को छोड़ते हैं…
चलो हम प्रकृति से कुछ सीखते हैं…
Nature Shayari
उलट कर रख दिया जैसे किसी ने…
आसमान का वृहद ये गोल कटोरा…
रंग बिरंगे इंद्रधनुष को जैसे किसी ने…
कल्पना की तूलिका से हौले से छेड़ा…
बिखर गए कुछ अहसास छिटक कर…
उड़ती आकृतियों ने चित्तकुंज को घेरा…
खिल उठी प्रकृति नवयौवना कुछ ऐसे…
पागल प्रेमी ने केशों में पोरों को है फेरा…
निःस्वार्थ कैसे कह दूँ अपने प्रेम को…
समर्पण के बदले मांगा है साथ तेरा…
कुछ मंथन कर रही हूँ आज चितवन में…
होती निष्फल मैं चितवन में प्रेम का डेरा…
कुछ तीक्ष्ण से बादल का बसेरा है…
कुछ पागल पवन ने अंतस तार छेड़ा…
नैन तड़पत आंसू बहत कुछ ना समझे…
सांस में सांस लेती बस नाम तेरा…
प्रकृति ने क्या खुशरंग बिखेरे हैं आसमान पर…
मानो हरीतिमा निखर आई हो जमीन की फलक पर…
Nature Shayari in Hindi
प्रकृति की अपूर्व रचना… चंचलता से खेलने चली…
जिसने शब्दों में बंधा खींचकर उससे दूर चली…
भावों में बहकर वही धारा नूतन निर्माण को चली…
स्वप्न प्रहर में शिखर की चाह में अनभिज्ञता का…
सार समेट चली रख लेती है ज्वार भाटा को…
आँचल में किंचित छिपाकर अश्रुओं के संसार में…
आज छुपकर फिर बहने चली…
प्रकृति की अपूर्व रचना… चंचलता से खेलने चली…
SHAYARI ON NATURE
फूलों से सीखिए सबके जीवन में रंग भरना…
पेड़ों से सीखिए ऊँचाईयों को छूना…
कलियों से सीखिए मुस्कुरा कर जीना…
काँटों से सीखिए कष्टों से उबरना…
पत्तों से सीखिए मस्ती में झूमते रहना…
टहनियों से सीखिए दूसरों को सहारा देना…
नेचर शायरी
तुम सागर सा गंभीर ही रहना…
मैं नदियाँ सी लहराऊँगी…
जो बने दोपहरीया धूप घनी तुम…
मैं शीतल छांव बन जाऊँगी…
तुम वृक्ष स्तंभ सा कठोर ही रहना…
मैं लचीली शाख बन जाऊँगी…
जो बने अनंत सितारे कभी तुम…
मैं धरा सी बाहें फैलाऊँगी…
तुम चिड़ियों का घोसला बनना…
मैं तिनका-तिनका जुट जाऊँगी…
जो बने बंजर मरुभूमि तुम…
मैं दो-आब सी उपजाऊ बन जाउँगी…
तुम संघर्षपुर्ण दास्ताँ बनना…
मैं त्याग की मूरत बन जाऊँगी…
जो बने परिश्रम सूचक तुम…
मैं लिए सौंदर्य यौवन इठलाऊँगी…
तुम श्री विश्वकर्मा का छत बनना…
मैं वहाँ श्री लक्ष्मी वैभव लाऊँगी…
जो बने पति परमेश्वर तुम…
मैं गृहस्वामिनी बन जाऊँगी…
तुम तारों में नारायण बनना…
मैं नारायणी बन जाऊँगी…
जो बने कभी दैत्य दारुक तुम…
मैं महाकाली बन जाऊँगी…
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नेचर शायरी
प्रकृति ही शक्ति है… शक्ति ही सृष्टि है…
सृष्टि में ही जीवन है… जीवन में ही भावनाएँ हैं…
भावनाओं में प्यार है… प्यार में पवित्र माँ है…
माँ से ही जीवन की संपूर्णता है…
माँ ही प्रकृति है… प्रकृति ही स्वयं सम्पूर्ण है…
Nature Shayari
हे… इंसान तुम हो बड़े स्वार्थी…
तुमसे भले ये निर्जीव परमार्थी…
तुम तो केवल लेना ही जानते हो…
प्यार भी बांटना नहीं चाहते हो…
कितना प्यार करती है तुमसे प्रकृति…
इसका एक-एक अंग चाहता फैले तुम्हारी कीर्ति…
ये कल-कल करती नदियाँ देती तुम्हें पीने को पानी…
और खाने को मछलियाँ ये झूमते-गाते पेड़ पौधे…
देते तुम्हें फल-फूल एवं घरोंदें…
पर क्या करते हैं तुमसे कभी सौदे?
ये प्रियजन चाहते हैं सिर्फ इतना तुमसे…
पढ़ो-लिखो बनो कुछ ऐसे नाम रौशन हो जग में…
क्या इतनी सी ख्वाहिश भी पूरी न करोगे इनकी…
क्या तुम इतने खुदगर्ज हो?
नहीं आवाज आएगी अंदर से बनूँगी मैं कुछ ऐसा जो…
ऊँचा कर दे सबों का सिर गर्व से…
पर क्या? फैसला तुम्हें है करना…
NATURE SHAYARI IN HINDI
बाग में जब भी मैं उनसे मिलने जाता था…
फूल नजरें चुराते थे और हर पेड़ शर्माया करते थे…
Nature Shayari
प्रकृति पर शायरी
समंदर के किनारे लहरों को आते जाते देखकर…
सीखा है मैंने खुद मे खोजना, खोजकर फिर डुबकी लगाना…!
आसमान में घूमते बादलों को आते जाते देखकर…
सीखा है मैंने खुद को पहले भरना, भरकर फिर लुटाना…!
मेरे आस-पास आती जाती इन हवाओं को देखकर…
सीखा है मैंने खुद महत्वपूर्ण रहना, फिर भी ना जताना…!
तालाब के आसपास आते जाते उन पक्षियों को देखकर…
सीखा है मैंने खुद हर जगह घूमना, पक्के ठिकाने न बनाना…!
जलती आग में आती जाती उन लकड़ियों को देखकर…
सीखा है मैंने खुद जलना, जलकर दूसरों को रोशनी दे जाना…!
जंगल से आते जाते हैं उन पेड़ों के पत्तों को देखकर…
सीखा है मैंने मृत्यु को समझना, जीवन का उत्सव मनाना…!
स्त्रीत्व की चरम पराकाष्ठा है मातृत्व…
आत्मसात करती है जीवन को अपने भीतर एक स्त्री…
और तब वो गढ़ पाती है अपनी एक दुनिया…
जिसको हम परिवार कहते हैं…
परिवार बीज बोता है संस्कार का…
संस्कार वृक्ष की तरह अपनी जड़ें फैलता है…
और तब एक सभ्यता खड़ी होती है…
सभ्यता से समाज उत्पन्न होता है…
जो कि एक दम भिन्न होता है…
जंगल से एक स्त्री भागती नहीं है…
प्रकृति के करवटों से घबरा कर…
वो बस खड़ी हो जाती है प्रकृति के सामने…
एक समानांतर प्रकृति बन कर…
वो युद्ध नहीं करती साक्षात्कार करती है…
आसमान में लटकते नक्षत्रों का…
सुख के गिरते पत्तों का वो श्रिंगार करती है…
वनस्पतियों और पत्थरों से…
उनको एहसास कराती है उनके होने का…
वो नाचती है पृथ्वी के साथ उसी की रफ्तार से…
ताकि बिगड़े न संतुलन उसकी दुनिया का…
स्त्रीत्व आधारशिला है हमारे भीतर की समाजिक्ता का
वो सभ्यताओं की आत्मा और…
संस्कारों की पुंज है संस्कृतियों की वजह…
स्त्री न आत्मा है और न शरीर…
वो खुद ही प्रकृति है…
जिसकी उंगली पकड़ कर चलती है जिंदगी…
NATURE SHAYARI
नदी, प्रकृति और स्त्री में समानता…
किसी नदी को निर्झर बन ऊंचाई से गिरते…
कभी भीगौर से देखा है तुमने ?
गिरने से ठीक पहले ऊंचाई पर बहती हुई…
नदी होती है कितनी शांत, सरल, सौम्य…
मानो स्वयं में ही हो मग्न और सम्पूर्ण…
किंतु खोह में गिरने के ठीक पहले…
उस ऊंचाई के किनारे पर आते ही होता है…
उसे एक रिक्तता का आभास कि इस किनारे के आगे है…
कोई रिक्त, गहरा स्थान जो है उसे स्वयं में समा लेने…
को आतुर जो थाम सकता है उसका वेग..
और अगले ही क्षण शांत जल गिरने लगता है…
बन कर निर्झर उस खोह का करने आलिंगन…
सुनाई देने लगता है एक शोर…
शांत जल में पैदा होती है ध्वनि…
ठीक ऐसी ही होती है स्त्रियाँ प्रतीत होती हैं शांत, सरल, सौम्य…
तभी तो सारे संसार के समक्ष शांत, मौन रहने वाली स्त्री…
सिर्फ उसके आगे ही होती है सबसे मुखर, चंचल, वाचाल…
उसका प्रियतम ही है वो खोह वो रिक्तता वो गहराई…
जिसमें समा सकते है उसके अंतस के समस्त शोर…
केवल वही थाम सकता है उसके हर उद्वेग का वेग…
तभी तो उस खोह के आलिंगन से निकलते ही…
निर्झर बन जाता है पुनः नदी की वही निर्मल धार…
वैसे ही शांत, सरल और सौम्य जैसी थी वो…
गिरने के ठीक पहले किनारे पर उस ऊंचाई के…
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